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अलिफ लैला की प्रेम कहानी-40

'रानी के प्रेम को जीवित रखने के लिए इतना ही यथेष्ट था। वह उससे घंटों प्रेम की बातें करके अपने चित्त को सांत्वना दिया करती थी। दिन में दो बार उसके समीप जाती थी और देर तक उसके पास बैठी रहती थी। मैं जानता था कि वह क्या करती है फिर भी सारे कार्य कलाप ऐसे साधारण रूप से करता रहा जैसे मुझे कोई बात विदित नहीं है। किंतु एक दिन मैं अपनी उत्सुकता नहीं रोक सका और मैंने जानना चाहा कि वह अपने प्रेमी के साथ क्या करती है। मैं उस मकबरे में ऐसी जगह छुप कर बैठ गया जहाँ से रानी और उसके प्रेमी की सारी बातें दिखाई-सुनाई दें लेकिन उनमें से कोई मुझे न देख सके।

 

'रानी अपने प्रेमी से कहने लगी कि इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि मैं तुम्हें ऐसी विवशता की अवस्था में देखती हूँ। तुम सच मानो, तुम्हारी दशा देखकर मुझे इतना कष्ट होता है कि जितना स्वयं तुम्हें भी नहीं होता होगा। मेरे प्राण, मेरे जीवनधार, मैं तुम्हारे सामने घंटों बैठी बातें करती हूँ और तुम मेरी एक बात का भी उत्तर नहीं देते। अगर तुम मुझसे एक बात भी करो तो मेरे चित्त को बड़ा धैर्य मिले बल्कि मुझे बड़ी प्रसन्नता हो। खैर, मैं तो तुम्हें देखकर ही धैर्य धारण किए रहती हूँ।

 

'रानी इसी प्रकार अपने प्रेमी के सम्मुख बैठ कर प्रलाप करती रही। मुझ मूर्ख से अपने रानी की यह दशा न देखी गई और उसका प्रेम मेरे हृदय में फिर उमड़ आया। मैं चुपचाप अपने महल में आ गया। कुछ देर में वह किसी काम से महल में आई तो मैंने कहा कि अब तुम ने अपने सगे संबंधियों के प्रति बहुत शोक व्यक्त कर लिया, अब साधारण रूप से रानी जैसा जीवन बिताओ। वह रोकर कहने लगी कि बादशाह सलामत मुझसे यह करने के लिए न कहें। मैं उसे जितना समझाता-बुझाता था उतना ही उसका रोना-पीटना बढ़ता जाता था। मैंने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया।

 

'वह इसी अवस्था में दो वर्ष और रही। मैं एक बार फिर शोकागार में गया कि रानी और हब्शी का हाल देखूँ। मैं फिर छुप कर बैठ गया और सुनने लगा। रानी कह रही थी कि प्यारे, अब तो दो वर्ष बीत गए हैं और तीसरा वर्ष लग गया है तुमने मुझसे एक बात भी नहीं की। मेरे रोने-चिल्लाने और विलाप करने का तुम्हारे हृदय पर कोई प्रभाव नहीं होता। जान पड़ता है कि तुम मुझे बात करने के योग्य नहीं समझते। इसीलिए तुम अब मुझे देखकर आँखें भी बंद कर लेते हो। मेरे प्राणप्रिय, एक बार आँखें खोल कर मुझे देखो तो। मैं तुम्हारे प्रेम में कितनी विह्वल हो रही हूँ।

 

'रानी की यह बातें सुनकर मेरे तन बदन में आग लग गई। मैं उस मकबरे से बाहर निकल आया और गुंबद की तरफ मुँह करके कहा ओ गुंबद तू इस स्त्री और उसे प्रेमी को जो मनुष्य रूपी राक्षस है निगल क्यों नहीं जाता। मेरी आवाज सुनकर मेरी रानी जो अपने हब्शी प्रेमी के पास बैठी थी क्रोधांध हो कर निकल आई और मेरे समीप आकर बोली अभागे दुष्ट तेरे कारण ही मुझे वर्षों से शोक ने जकड़ रखा है, तेरे ही कारण मेरे प्रिय की ऐसी दयनीय

 

 दशा हो गई है और वह इतनी लंबी अवधि से घायल पड़ा है। मैंने कहा हाँ मैंने ही इस कुकर्मी राक्षस को मारा है, यह इसी योग्य था और तू भी इस योग्य नहीं कि जीवित रहे क्योंकि तूने मेरी सारी

'यह कहकर मैंने तलवार खींच ली और चाहा कि रानी की हत्या कर दूँ किंतु उसने कुछ ऐसा जादू किया कि मेरा हाथ उठ ही न सका। फिर उसने धीरे-धीरे कोई मंत्र पढ़ना आरंभ किया जिसे मैं बिल्कुल न समझ पाया। मंत्र पढ़ने के बाद वह बोली अब मेरे मंत्र की शक्ति देख, मैं आज्ञा देती हूँ कि तू कमर से ऊपर जीवित मनुष्य रह और कमर से नीचे पत्थर बन जा। उसके यह कहते ही मैं वैसा ही बन गया जैसा उसने कहा था अर्थात मैं न जीवित लोगों में रहा न मृतकों में। फिर उसने शोकागार से उठवाकर मुझे इस जगह लाकर रख दिया। उसने मेरे नगर को तालाब बना दिया और वहाँ एक भी मनुष्य नहीं रहने दिया। मेरे सभी दरबारी, प्रजाजन मेरे प्रति निष्ठा रखते थे अतएव उसने उन सबको अपने जादू से मछलियों में बदल दिया। इन में जो सफेद रंग की मछलियाँ हैं वे मुसलमान हैं, लाल रंग वाली अग्निपूजक, काली मछलियाँ ईसाई और पीले रंग वाली यहूदी हैं।

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